बंधन रक्तस्त्राव का
बंधन रक्तस्त्राव का
कुछ सहमी और कुछ सकुचाती,
कपड़ों में लगे दाग छिपाती,
जैसे कर दिया हो कोई पाप जीवन का,
चेहरा ढकती कि सबसे बचाती।
और छुपाती भी क्यों ना,
उसने हमेशा यही देखा था,
अपनी मम्मी, दादी, नानी, चाची,
सबसे यही सीखा था।
उम्र के इस पड़ाव में ,
तुम अछूत हो जाती हो,
ना छूना रसोई या मंदिर कोई,
कि अभी अशुद्ध कहलाती हो।
रक्त के धब्बे ना,
दुनिया को दिखने देना,
दर्द भले कितना भी हो,
ना चेहरे पर आने देना।
ना छूना तुलसी आँगन की,
ना पौधों को पानी देना,
यदि घर की खुशियां चाहती हो,
एक कोने घर के पड़ी रहना।
माँ ने हर पल समझाया था,
ये लाज तुम्हारा गहना है,
इसी लाज़ के साथ साथ ही,
तुमको जीवन जीना है।
सोचा कई दफ़ा पूछ ले,
कारण इसे छिपाने का,
क्या ये कोई ग़लती है की,
नहीं इसे बताने का।
पर ऐसी बातें खुले पूछना,
संस्कार नहीं कहलाता था,
रक्तस्त्राव की बातों से लड़की का,
चरित्र शिथिल हो जाता था।
इसी सीख के साथ साथ ही,
उसने यौवन को पार किया,
सब तकलीफ़ें सही अकेली,
शिक्षा को सत्कार दिया।
लेकिन आज पुनः ईश्वर ने ,
उसकी शिक्षा को झकझोरा था,
जब उसकी ख़ुद की बेटी को,
इस रक्तस्त्राव ने घेरा था।
अपनी बेटी के सब भाव उसे,
बचपन की याद दिलाते थे,
उसके निश्छल प्रश्न सभी,
तीर समां चुभ जाते थे।
समझ नहीं पाती थी,
क्या समाधान दे प्रश्नों का,
रीत जहाँ की पुनः निभा ले,
या उत्तर दे इन रस्मों का।
हिम्मत कर उसने बेटी को,
अपने पास बुला लिया,
प्यार से सहला माथा उसका,
खींच गले से लगा लिया।
फ़िर प्यार से समझाया कि,
ये ईश्वर का अंदाज़ है,
स्त्री होने की पहचान है ये,
नव जीवन का आगाज़ है।
ये ना कोई ग़लती है,
ना लाज़ शर्म की परिपाटी,
ये तो एक गौरव है जिससे,
औरत ही बस सज पाती।
ना इसे छुपाना दुनिया से,
ना दर्द अकेले सहना है,
ये रक्त के धब्बे दाग नहीं हैं,
स्त्रीत्व का गहना हैं।
यह कहकर उसने बेटी के,
मन का तूफ़ाँ शांत किया,
रस्म पुरानी तोड़ जहाँ को,
नव पथ का पैग़ाम दिया।
खुली हवा में जीने का,
एक नया सबक़ सिखा दिया,
रक्तस्त्राव के बंधन से,
अपनी बेटी को आज़ाद करा दिया।