बिसात
बिसात
न जाने कैसे स्वयं को
जीवन का संभाव्य समझ
खुद में इतना गुमान भरत लेते हैं।
कुछ लोग मोहरे चल चल के,
ज़िन्दगी को बिसात बना लेते हैं।
कुछ लोग हैं कि ज़िन्दगी को बिसात
और लोगों को मोहरे समझ लेते हैं।
छलावों को भावों में बुनकर,
रिश्तों के भी जाल बिछा लेते हैं।
ज़िन्दगी औरों की खेल बनाकर,
खुद को खिलाड़ी बना लेते हैं।
अनजाने ही में खुद को,
सत्ता का दास बना लेते हैं।
खुद राजा हो जाने के लिए,
औरों को रंक बना लेते हैं।
हँसती-खेलती ज़िन्दगी औरों की,
महज़ कयास बना देते हैं।
कुछ लोग चालें चल-चल कर,
ज़िन्दगी को शतरंज बना देते हैं।