बिना पंख की आज़ादी
बिना पंख की आज़ादी
दिल चाहता है कुछ लिखना
पर शब्द मिल ही न रहे
दिल चाहता है सब समझना
पर लम्हे रुक ही न रहे
जब रास्ता मिला तो कदम रुक गये
जब मंज़िल दी दिखाई तो नज़रे झुक गयी
जी चाहता है कि पंख फैला कर उड़ जाऊँ
इस आसमान में बस एक पंक्षी की तरह
फिर लगता है समेट लूँ उन पंखों को
छुप जाऊं कहीं दूर अंधेरे में
क्या चाहती हूँ मैं
कोई तो समझाये मुझे
क्यों डरती हूँ मैं
कोई तो बताये मुझे
ऐसा लगता है कि कोई मेरी जिन्दगी के
खाली पन्नों में एक छाप छोड़ रहा है
न जाने क्यों फिर भी ये दिल इतना डर रहा है !!!
शायद ये जानता है
उन सीमाओं को उन बंधनों को
जिससे ये पंक्षी बँधा है
चाहे तो भी उड़ नही सकता
इस कदर उनमें घिरा है
ये खेल था एक शिकारी का
जिसने पंक्षी तो क़ैद किया
पंख सब उसके काट दिए
फिर क़ैद से उसको छोड़ दिया
उसने तो मुक्त किया उसको
आज़ाद परिंदा बनाने को
पर पंख ही उसके जब काट दिए
तो कैसी ये आज़ादी थी !!!
एक धोखा था ये पंक्षी से
एक भ्रम से साझेदारी थी
पर पंक्षी में थी हिम्मत फिर भी
लड़ता रहा हालातों से.
खुद से लड़ा ..अपनों से लड़ा
लड़ता रहा जज्बातों से
हिम्मत पंक्षी की टूट रही
अब अपने इन हालातों से
लड़ते-लड़ते बिखर गया वो
अब अपने ही जज्बातों से
आज़ादी के नाम पर की गयी
कैसी ये मनमानी है !!
पंखों के मोल पर दी गयी
कैसी ये आज़ादी है ?????
