बिना मूल का पता लगाए
बिना मूल का पता लगाए
बूंद बूंद कर धार बनी कब, धारों ने कब नदी बनाई
पथ खोजे किस भांति नदी ने, कब-कब कहां-कहां टकराई।
धोए कलुष कहां कितनों के, कब कितनों की प्यास बुझाई
मझधारों में कितने डूबे, कब कितनों ने जान गंवाई।
कब-कब सिमटी रही तटों में, कब तटबंध तोड़कर आई
कहां बही रह धीर नदी, कब, चंचल चपल पड़ी दिखलाई।
जग को बांट मिठास नदी, कब, खारे सागर बीच समाई
करुण कथा तब भी न नदी की, कहीं किसी ने कही सुनाई।
था वर्जित इसलिए कभी हम, मूल नदी का खोज न पाए
कथा नदी की कौन लिखे तब, बिना मूल का पता लगाए।