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Nisha Nandini Bhartiya

Classics

5.0  

Nisha Nandini Bhartiya

Classics

भोर की बयार

भोर की बयार

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हर रोज चुपके से भोर की बयार

कानों में कुछ कह जाती है 

खुशबू उसकी सारा दिन महका जाती है। 

एक दिन मैं पूछ बैठी उस बयार से 

पगली तू इतनी खुशबू लाती है कहाँ से?

तेरे खुशबू का भंडार नहीं होता कभी रीता 

हरदम महकती रहती है तू

चिंता, फ़िक्र परेशानी को 

कहाँ छोड़ आती है तू

कहाँ है तेरा घर द्वार

कहाँ से पाती है तू इतनी शांत रहने की शक्ति 

कहाँ से मिलता तुझे उत्साह?

 

मेरे चुप होते ही बयार धीरे से 

मिश्री सी घोल गई 

कानों में बहुत कुछ बोल गई।

नहीं है मेरा कहीं कोई घर-द्वार 

तुम जैसों को सुकून देकर 

मैं खुश हो जाती हूँ

दुगना उत्साह पा जाती हूँ।

पाने की नहीं लालसा मुझे 

केवल देना ही मेरा धर्म है 

परसेवा ही मेरा कर्म है। 

पक्षियों संग फुदकती हूँ 

पेड़ों पर उछलती हूँ

नदी संग दौड़ लगाकर

जीत लेती हूँ उसका मन

सागर संग अठखेलियां करता मेरा तन

कभी पेड़ों के झुरमुट में बैठकर 

घड़ी भर सुस्ता लेती हूँ।


फिर खेलने लगती हूँ 

रंग-बिरंगे प्यारे-प्यारे फूलों के संग

कभी-कभी उनको छूकर छिपकर बेचैन कर देती हूँ।

बहुत खुश होने पर बादलों संग 

खेलती हूँ

पर्वतों पर फिसलती हूँ

आकाश को चूमती हूँ। 

फिर दौड़ कर बाग-बगीचे, वन, जंगल में छिप जाती हूँ। 

चंदन के वृक्षों से लिपट-लिपट कर शीतल हो जाती हूँ। 

इतने मधुर लोगों के संपर्क से 

सारा दिन महकती हूँ 

फिर भोर की बयार बन 

तुमको महकाती हूँ।


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