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अजय एहसास

Tragedy

3  

अजय एहसास

Tragedy

भिक्षुणी

भिक्षुणी

2 mins
336


डरी सहमी सी वो,

व्याकुल गर्मी से वो।

गोदी में बच्चे को उठाये,

फटे कपड़ों में तन को छिपाये।


गरीबी उससे खेल रही थी,

वह गरीबी भुखमरी की मार झेल रही थी।

धूप से जलते हाथों में एक दण्ड,

उसके पीछे कुत्तों का एक झुंड।


थोड़ी दूर चलती, रुककर फिर पीछे देखती

सम्हालती अपने कपड़े लत्तों को,

निहारती अपने पीछे आने वाले कुत्तों को।


जब भी वो किसी के सामने हाथ फैलाती,

लोग हेय दृष्टि से देखते।

कुछ की आंखों मे वासना की भावना उतर जाती,

और उसके फटे कपड़ों पर दृष्टिपात करते।


मन में लोगों से कुछ पाने की आस रहती,

बनकर वो एक जिंदा लाश रहती।

कभी-कभी वो निराश रहती,

फिर भी उसे किसी की तलाश रहती।


आंसुओं के समन्दर को,

दुखों के बवंडर को वो

अन्दर ही अन्दर पी जाती।


जब भी मिलते कुछ

पैसे या रोटी का टुकड़ा,

मानो वो फिर से जी जाती ।  


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