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Deepa Jha

Abstract Tragedy

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Deepa Jha

Abstract Tragedy

भीड़ का हिस्सा

भीड़ का हिस्सा

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दो रोटी जल्दी जल्दी तवे पे पकाई है

झट-पट कमरों को कुछ सलीके सी बनाई है

अपना बैग और टिफ़िन हाथ में समेट कर

स्कूटर की तरफ दौड़ लगाईं है


टीवी पे और अखबारों के पन्नों से

कुछ ज़ेहरीली सी हवा आयी है

पर मेरी मंज़िल तो अपने दफ्तर का दरवाज़ा है

उसी हवा ने वहाँ भी डेरा डाला है


उसको ही मैं भी ताज़गी मानती हूँ

अब मैं भी उसी पहचानहीन भीड़ का हिस्सा हूँ

जिस भीड़ से लड़ कर सावित्री बाई फूले और

बेग़म रुकैय्या ने मुझे दफ्तर तक पहुंचाया है


आज उसी ज़हरीली भीड़ के अंधियारे में

मैंने खुद को मेहफ़ूज़ बनाया है। 


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