भौरा और कली
भौरा और कली
कली ने कहा भौंरे से, ना पास आ मेरे
भौंरे ने कहा आज क्यों एतराज है
पास आने से मेरे,
कली ने कहा एतराज है उस आलिंगन का
जो बना जाता है मुझे कली से फूल ,
तुम तो पवन रस चूस कर जाते हो मुझे भूल,
भौंरे ने कहा यह तो वो परंपरा है जो
मुझे निभाना है,
कली कहती हैं, हूं इसीलिए तो लोग कहते है, तू मेरा दीवाना है,
अब हमें बदनाम ना कर तू अपने राह निकल
मैं तो अपनी रह पर हूं, मारी गई है तेरी अक्ल,
जब भौंरे तुम्हें न छूएंगे, तुम्हारी सुप्त रगे ना छेड़ेंगे,
तब तुम्हें पता चल जाएगा, जब वक्त हाथ से निकल जायेगा,
तुनक कर बोली वह भौंरे से बंद कर अपनी भिन भिन,
मैं चढ़ती हूं ईश्वर के चरणों, तुम कर देते हो मुझको जूठा,
प्रकृति की शान हूं मैं, हर स्त्री की जान हूं मैं,
भौंरे ने कहां, हमारे कारण ही तू बनती है ईश्वर पर चढ़ने लायक,
हमारे ही कारण तू बनती है लोगों की जान,
जो हम न आलिंगन करे, तो तू कुछ न पाएगी,
यूं ही बातों के गुरूर में तू कहीं कि न रह पाएगी,
चाहत के इस संसार में बिन भौंरों के, कभी काली न खिल पाएगी,
यह सुन कली नरमाई थोड़ी शरमाई और फिर मुस्कराई,
फिर थोड़ी ली अंगड़ाई, फिर कहां भौंरे से उसने,
हुई खता माफ कर मुझको, अब तू ना मुझसे बात कर,
आ करके आलिंगन मेरा, बना कली से फूल मुझे।