बहार
बहार
ग़ज़ल
अब तो दिलों में नफ़रत की दरार है
आती कहा मुहब्बत की दयार है
मौसम है ये कैसा बेदर्द सा मगर
ख़ुशहाल की नहीं आयी बहार है
मैं तो तड़फता हूँ हर पल ख़ुशी को ही
कब दिल को मगर यहां मेरे करार है
ए दोस्त क्या करुँगा शहर जाकर के
की कौन करता मेरा इंतजार है
है अजनबी यहां चेहरे हूँ तन्हा मैं
कोई भी तो नहीं अपना देखो यार है
दुश्मन मिटा दूँ मैं आज़म अपने सभी
नफ़रत दिल में मेरे ही बेशुमार है।
आज़म नैय्यर
