बहार आई है
बहार आई है
पेड़ों पे मस्ती छाई है
आम की डाली बौराई है
देखो फिर बहार आई है
काला साया ढल चुका है
सतरंगी रंग बिखर चुका है
विहंगों का कारंवा निकल चुका है
भोर जैसे श्रंगार कर के आई है
देखो फिर बहार आई है
लताएँ झुक गई है अपने ही भार से
डाल रही पेड़ों के गले,बाहों के हार से
अपने ही आप में जैसे शरमाई है
देखो फिर बहार आई है
गुप-चुप सरगोशियाँ इन पत्तों की सुन
न जाने कौन कौन से सपने रहे है बुन
इक पल में जीते सारा जीवन
खुशी फूलों का रंग लिये आई है
देखो फिर बहार आई है
प्रकृति भी आज निखरी हुई है
रंगीन आभा बिखरी हुई है
हर शै दे रही बधाई है
पर ऐ सखी ! तू क्यों अकुलाई है ?
देखो फिर बहार आई है
दे रहा कोई निमन्त्रण मौन
छुप कर बुला रहा ये कौन
व्यथा मेरे मन की उसी ने बढ़ाई है
कण -कण में जिसकी रहनुमाई है
ये पहेली तो सुलझ न पाई है
देखो ......फिर बहार आई है।
