बेज़ुबानी
बेज़ुबानी
आँखों ने ग़ुस्ताख़ी की थी, नज़र मेरी थी मगर तेरे नयनो ने हाँ की थी,
होटों की मुस्कराहट ने भी तो ना न की थी,
ऐसी गुस्ताखी तो न की थी कि ख़ामोशी भी मौन होगयी
गुस्ताखी तो आँखों की थी, फ़िर दर्द सीने में क्यों है,
आँखें तो बोलती है , फिर अल्फ़ाज़ ख़ामोश क्यों है.
मुस्कराना तो न छोड़ा लबों ने तेरे, फिर नजरें झुकी सी क्यों है.
ढ़लती उम्र तेरी, फिर क्यों ये बेज़ुबानी जवाँ होगयी.