बेघर कमेरे
बेघर कमेरे
बस जी लेता हूँ राम सहारे, कही का रखा ही कहाँ मुझे
अपना घर छोड़ दिया मैंने, शहर ने अपनाया कहाँ मुझे
बताने को कितनी बातें थी, शहर को मेरे गांव की
ख़रीद फरोख्त थी बस मेरी, कुछ भी पूछा ही कहाँ मुझे
गांव में कुत्ते भी पैरों लिपट जाते थे पास आकर
कैसा शहर ,यूँ ही मुस्कुराने का चलन दिखा ही कहाँ मुझे
वहाँ मेरे घर मे बारात तक समा जाती थी
यहाँ तो सपनो को रखने को जगह ही कहाँ मुझे
गांव में अपनी क्या गैरों की बहनो ने हक़ मान लिया
मंडी ए शहर की मीठी आवाज में वो एहसास कहाँ मुझे
कमाने को दो वक्त की रोटी, मैंने क्या क्या बेंच दिया
रंज है, गांव की ठंडी हवा के बदले कुछ मिला कहाँ मुझे
सब्र बस है बहन की किताबो, माँ की दवाई की चिंता नहीं
पर क्या करूँ, अपनों का उदास चेहरा भूलता कहाँ मुझे।