बेग़ुनाह गुनहगार सा...
बेग़ुनाह गुनहगार सा...
बेग़ुनाह गुनहगार सा,
ये दिल हैं आज बेज़ार सा...
जब नफ़रत ही हिस्से आनी थी,
फ़िर क्यों हो गया प्यार सा..
तयखाने सारे भर गए,
मयख़ाने में पल गुज़ारता...
उस नूर के फ़ितूर को,
हर जाम के साथ उतारता...
है दूर दारिया के पार वो,
क्यों बेज़ुबां होके पुकारता...
बेग़ुनाह गुनहगार सा,
ये दिल हैं आज बेज़ार सा...
इस दाग़-ए-दामन का क्या करे,
छा गया है जो ख़ुमार सा...
अम्बर दिखे ना अब कहीं,
छाया कैसा अंधकार सा...
सपनों की लौ बस जल रहीं,
जल रहा संसार सा...
बेग़ुनाह गुनहगार सा,
ये दिल हैं आज बेज़ार सा...
जब नफ़रत ही हिस्से आनी थी,
फ़िर क्यों हो गया प्यार सा...
बेग़ुनाह गुनहगार सा,
ये दिल हैं आज बेज़ार सा...