बेचारी बेबस हिंदी
बेचारी बेबस हिंदी
दूर कही भीड़ में गुमसुम
हिंदी सहम रही थी....
आंखों में थे ठहरे आंसू
किस्मत पर अपने सिसक रही थी।
ऐसी दशा राष्ट्र भाषा की
विस्मित मैं सोच में पड़ा था,
हिंदी की ऐसी पीड़ा देखकर
मैं खुद आवाक खड़ा था।
मैंने पूछा यूं खुद को छिपाए
क्यों तुम दुबक रही हो ?
आज इस हिंदी दिवस में भी
तुम पीछे सबसे खड़ी हो।
क्या किसी ने की धृष्टता
या कर दिया तुम्हारा अपमान,
दे कर घाव तुम्हें कोई
क्या ले गया तुम्हारे प्राण ।
सुनकर मेरे शब्दों को हिंदी
जोर जोर से हंसने लगी,
यही मान किया तुमने मेरा
वो व्यंग्य मुझपे करने लगी।
मेरे ही घर में तुम सब मुझको
मेहमान मुझे बनाते हो,
करते स्तुति ईश्वर जैसी
मेरा गान मुझे सुनाते हो।
जैसे मै
ं कोई विदेशी बाला
सात समुंदर पार से आई हूं,
यहां किसी का हक मार कर
जबरन उसके घर घुस आई हूं।
मैं तो जड़ हूं इस वृक्ष की
मैं ही यहां कण कण में,
सभ्यता भी तो मैं ही हूं
मैं हवा पानी और हर तृण में।
मुझसे ही यहां सभी जुड़े हैं
क्या पूर्व से पश्चिम तक...!
आजादी की अलख जगाई
मैंने ही उत्तर से दक्षिण तक।
हिन्दुस्तान की भाषा मैं हूं
मैं रची बसी यहां रग रग में,
गद्य, पद्य या साहित्य पटल हो
बिखरी मैं यहां पग पग में।
दूरियां मिटाकर मैं यहां
दिलों में अलख जगाती हूं,
जोड़ती हूं एक दूजे को
देश की शान बढ़ाती हूं।
रोज मनाओ मेरा दिवस
किसने तुम्हें यहां रोका है,
अतिथि की तरह व्यवहार करते
क्या नहीं ये मुझसे धोखा है।