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अंकित शर्मा (आज़ाद)

Comedy Drama

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अंकित शर्मा (आज़ाद)

Comedy Drama

बड़ी चम्मचें छोटे कौर

बड़ी चम्मचें छोटे कौर

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इक बड़े विदेशी रेस्त्रां में

मुझको मिला निमंत्रण था,

इक मित्र किए थे इंतजाम,

स्नेहिल वो आमंत्रण था,


देखा मैंने जो हाल वहां

उसको सबको बतलाता हूं,

और किसी के कहने पर

ये कविता नई सुनाता हूं,


बड़ी कोई फ्रेंचाइज थी,

दाम वहां कुछ ऊंचे थे,

रस गन्ने का पीने वाले हम

इक काफ़ी हाउस पहुंचे थे,


थी वहां बहुत सी चका चौंध,

निजता का बहुत संरक्षण था,

हम पांच जनों का कोने की

टेबल पे हुआ आरक्षण था,


वेलकम सर वेलकम मैडम

कहने वाला इक बाबू था,

सेंट्रलाइज एसी थी वहां

तापमान पर काबू था,


तस्वीर बनी चप्पल थी वहां

बड़े शान से लटकी थी,

दो बड़ी सी आंखें उल्लू की

हम सब पर ही अटकी थी,


कुछ रस्सी थीं जिनके नीचे

कुछ बल्ब पुराने लटके थे,

इक दो शायद फ्यूज भी थे

हमको थोड़े से खटके थे,


एनफील्ड बनी थी बक्सों पर,

सफर सुहाना कहती थी,

मद्धिम मद्धिम सी लहर वहां

लाइट म्यूजिक की बहती थी,


उस कंक्रीट की दुनिया में

थे मनीप्लांट भी कहीं कहीं,

अख़बारनुमा इक मेनू भी

टेबल पर हमको मिला वहीं,


गज़ब नाम पढ़कर जिनको

क्या मिलेगा उसका भान न हो,

इतने सारे मिल गए विकल्प

ऑर्डर देना आसान ना हो,


बोली जाती इंग्लिश तड़ तड़

गांव की भाषा कहां टिके,

आइसक्रीम में लगा आग 

‘वाव सिजलर’ कह वहां बिके,


मेनू से करी गुत्थम गुत्थी

सबने गहन करी चर्चा,

मित्र हमारे मन ही मन

जोड़ लिए अपना खर्चा,


फिर बैरा ’भैया‘ वेल ड्रेस्ड

कलम डायरी ले आए,

ऑर्डर लिखते लिखते हमसे

वो चार बार तो मुसकाए,


फिर सफ़र हुआ बातों का शुरू

सब भीतर अपने झांक सके,

मेनू के मकड़ जाल से बाहर

हम बगल की टेबल ताक सके,


शांति कहूं या नीरवता

कोरी आंखें मैंने देखीं,

मिला गजब का सूनापन

अपनी नजरें जिन पर फेंकी,


सहमा सा जो देखा मंजर

कुछ पल को तो घबराया,

मैं जबरन खुद को खींच के वापस

टेबल पर अपनी लाया,


आलू हो गया डीप फ्राई

फ्रांसीसी उसपे रंग चढ़ा,

मिलीं साथ कटोरी पिद्दी सी

दो तरह का जिनमे सौस पड़ा,


लगभग आधा घंटा बीता 

ऑर्डर सबका आ जाने में,

हमने ठंडी कॉफी पी ली

ध्यान दिया फिर खाने में,


खाने का भी सबका अपना

अदब भरा स्टाइल था,

समय यूं लगा दो बाइट में

डिस्टेंस जैसे सौ माइल था,


गोभी का पत्ता बन लेट्यूस

थाली में आकर बैठा था,

नीबू सलाद से गायब हो

फिंगर बाउल में ऐंठा था,


बिलिंग हुई फिर वेटर ने

बाल्टी में बिल को पहुंचाया,

कुछ हिस्सा ऑर्डर था सबका

कुछ जी एस टी बनके आया,


डिजिटल माध्यम को कर प्रयोग

बिल का फिर भुगतान हुआ,

हाथ मिला कर सभी मित्र से

मैं घर को प्रस्थान हुआ,


हां माहौल बड़ा ही सुन्दर था

गजब वहां पर शांति थी,

पर समझ गया कुछ पलों में ही

कैसी लोगों को भ्रांति थी,


भीतर तन्हा हो गए हैं तो

खुद को हम भीड़ में खो आए,

कैसे देंगे खुद को धोखा

खुद अपने को हम सिखलाए,


खुद को डूड दिखाने में

देसीपन अपना भूल गए,

अपनी बोली में लज्जा है

जाने कैसे स्कूल गए,


घर आकर मैंने बड़े चाव से

मन भर दाल भात खाया

बड़ी चम्मचें छोटे कौर,

याद किये और मुस्काया।


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