बचपन
बचपन


साठ सावन बीते,क्या दौरे ज़िंदगी थी!
वह बचपन कि सखियां,वह छुपम छुपाई।
वो बड़ों की खटियों के नीचे छिप जाना
वो पकड़ने वाले का चिल्लाना,और बड़ों का गुस्साना !
हर पूर्णिमा को मां का कथा बांचना हमारा प्रसाद के पेड़ों,
चरणामृत को आंख बचाकर पी जाना।
वो अष्टमी की बासी मीठी पूरियों का इंतज़ार
और मां की पूजा का लंबे खींच जाना।
सावन की दस्तक ओर पेड़ों पर झूले पड़ जाना
अपनी बारी की छीना झपटी में चोटिल हो जाना।
अब नहीं है खुली ज़मीन जहां झूला बांध लें
अब मोबाइल है,आभासी दुनिया के मित्र हैं।
चलो जो है उसी में खुश हो लेते हैं
वरना कहोगे ," साठा सो पाठा"।