बचपन
बचपन
बेटे के साथ खेलते हुए कई बार मैं भी
अपना बचपन जी लेता हूँ।
फिर चाहे वह गुड्डे-गुड़ियों वाला खेल हो
या फिर बीच उनके लड़ाई।
कई किस्से-कहानियाँ जो
बचपन में सुने थे,
वे सभी अवचेतन मन में
आज भी गहराई से गड़े थे।
बेटे को कहानियाँ सुनाते हुए
इन बिसरी बातों के पहली बार ही अनुभव हुए थे।
हैरानी हुई यह जानकर कि
बचपन के वे सारे किरदार
आज भी ज्यों-के-त्यों
अपनी उसी उम्र में अड़े हुए थे।
फर्क बस इतना रह गया था कि
माँ की जगह पर अब मैं आ गया था।
और रंगीन जीवन का स्वप्न देखता
मेरा बचपन मेरे बेटे की आँखों में उतर आया था।
अक्सर माँ द्वारा दी जाने वाली अनगिनत विरासत में
इन सभी बातों का समावेश
कभी नहीं हो पाता है।
संस्कारों की दुहाई देने वाला यह समाज
इन बातों को भला कैसे भूल जाता है ?
अब......
बेटे की आँखों से ही
उन बीते लम्हों को फिर से
जी लेता हूँ।
माँ पास बैठ मुस्काती है
और मैं फिर से नन्हा बच्चा बन जाता हूँ।
