"अवधपुरी त्रेता काल की"
"अवधपुरी त्रेता काल की"
बस जाए कोई मन का नगर।
बस जाए कोई ऐसा नगर।
अवधपुरी हो त्रेताकाल की।
जैसे अवधपुरी हो त्रेता काल की।।
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हों राजा जहां राम से
हों महाराज दशरथ सेे।
देवताओं की भी कृपा हो
पर जनता ना धोबी सी हो।
जनता ना धोबी सी हो।।
बस जाए.....।
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पुरोहित वशिष्ठ से
गुरूजन विश्वामित्र सेे।
माता कौशल्या हों, माता सुमित्रा
और राजमाता हों कैकई।
राजमाता हों कैकई।।
बस जाये.....।
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जनता के सुख के लिए
मुनियों के हक के लिए।
कैकई ने मांगा वर औ
भेज दिया बेटे को वनवास।
बेटे को वनवास।।
बस जाए......।
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देवताओं की अर्जी थी
मुनियों की मर्जी थी।
सौतेलेपन का दंश झेला
झेली सारे जग की खटास।
सारे जग की खटास।।
बस जाए......।
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बनते-बनते रह गये जब
राजा श्री राम जी।
हुआ न विचलित मन
चले गये वनवास जी।
गए वनवास जी।।
बस जाए.........।
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चले तब साथ सिया
और भ्राता लखन जी।
सुमंत भी साथ चले
चल दिये साथ नगरवासी।
साथ नगरवासी।।
बस जाए.....।
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भाईयों का प्रेम हो
चरत-भरत,लखन सा।
बहिनों का स्नेह भी माण्डवी
श्रुतिकीर्ति, उर्मिला सिया।
उर्मिला सिया सा।।
बस जाए......।
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वनवास का समय था
आदर्श समाज की स्थापना।
जातिभेद मिटा,धर्मस्थापना
भिलनी के झूठे बेर चखे,केबट से मित्रता।
केबट से मित्रता।।
बस जाय......।
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वनवासियों को संगठित कर
दिये जीवन के मन्त्र।
आदिवासी,पिछड़ों को मान दिया
दिया सबको ही आत्मबल।
सबको ही आत्मबल।।
बस जाए......।
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सत् की जीत हो, बुराई की हार
धर्म-कर्म प्रबल हो,अधर्म का नाश।
संस्कृति, संस्कार का मन में निवास हो
ऊंच-नीच का ना नाम हो,न्याय तटस्थ हो।
न्याय तटस्थ हो।।
बस जाए.......।
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यही मेरी कामना,यही आराधना
खुशियों के फूल खिलें,हर मन के उपवन में।
मानवीय गुणों की गंगा बहे
मन के रेगिस्तान में।
मन के रेगिस्तान में।
बस जाये कोई मन का नगर,
बस जाय कोई ऐसा नगर,
अवधपुरी हो त्रेताकाल की।
जैसे अवधपुरी हो त्रेताकाल की।।
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