अवध के नाम
अवध के नाम
वो शोखी वह नज़ाकत,
बजते घुँघरुओं की वह आहट,
मौसिकी का समां ठुमरी की दस्तक,
बेइन्तेहाँ एहसास जुड़े हैं,
मोगरे से महकी उस शाम ए अवध से,
ले चल साक़ी फिर उसी महफ़िल की ओर,
की रूह क़ैद है आज भी
वहीं अवध की गलियों में।
नज़ाकत के लम्हो को मौसिकी में पिरोके,
आँखों की मस्ती को रक्स में डुबोके,
निकली है शमा अवध ए महफ़िल में यूँ,
अदाओं के पैमाने में परवानो को भिगोके।
तेरी चौखट पर दिल हार बैठे कितने,
कतल हुए हुस्न के बाज़ार में इतने,
उल्फत के कुछ पल मौसिकी में पिरोके,
नवाज़ दिए आशिक़ के दरबार में किसने।
अदाओं के जाम यूँ पिलाये ज़ालिम ने,
हम उस महफ़िल के मुसाफिर हो गए,
ठुमरी में रक्स को इस कदर मिला दिया,
हुस्न ए आयात के शायर हो गए।
यूँ कातिल निगाहें जो उठी,
कत्ल हो गयी महफ़िल पूरी,
कदम थिरके यूँ की बिजली-सी कौंध गयी,
मोगरे से महकते हुस्न ए इश्क़ का
दीदार हुआ जब,
खुदा खुद ही अपनी कारीगरी का
दीवाना बन बैठा।
खनकते घुंघरू की तानों से
गूंजती थी महफ़िल,
उठते गिरते कदमों के नीचे
बिछा रहता परवानों का दिल,
ताल पर बिजली-सी
लहराती थी शमा यूँ,
मौसिकी का जशन था
अवध के उस बाज़ार में।