औरत और बंधन
औरत और बंधन
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कभी यहाँ जाना चाहता है
कभी वहाँ जाना चाहता है।
मेरा मन ना जाने कहाँ जाना चाहता है।
पंछि बन आसमान मे उडता है कभी,
मछलियो संग गोते लगाना चाहता है।
मेरा मन ना जाने कहा जाना चाहता है।
समाज के बन्धन को तोड के
खुली रहो पर दौड लगाना चाहता है।
मेरा मन ना जाने कहा जाना चाहता है।
परवाह नही करता बातो की ,
ना सुनता है रिस्ते नातो की।
दिल की बात सुनाना चाहता है।
मेरा मन ना जाने कहाँ जाना चाहता है।
फिक्र नहीं उसे किसी के रूठने की
ना किसी को मानना चाहता है।
मेरा ये बेचैन सा मन ना जाने क्या चाहता है।