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अतृप्त

अतृप्त

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बादल, ख्वाहिशों का,

चाहत अब तक की,

उसको, तुमसे मिलने से पहले,

टाँग आई मैं,

पहाड़ की चोटी पर,

इस आस के साथ कि,

तुम्हारे प्यार की ऊष्मा में,

संघनित हो,

मेरी ख्वाहिशों के बादल,

मेरे दामन को खुशियों से भर देंगे,

पर ऐसा अभी तक न हुआ।


कल्पनाओं की उड़ान भर,

अक्सर मैं देख आती हूँ उस बादल को,

जो अभी भी सुरक्षित टँगा है,

जिसमें मेरी ख्वाहिशें,

अब भी सुरक्षित हैं,

ठोस अवस्था में,

मृत शरीर-सा शांत एवं ठंडा।


और आज मैं क्या देख रही हूँ,

कोई पहाड़ की चोटी को हिला रहा है,

अपनी गर्म साँसों से,

मेरी ख्वाहिशों के बादल को,

बहा कर ले जाना चाहता है,

और टाँगना चाहता है,

अपनी इच्छाओं की चोटी पर।


नहीं चाहता वो मुझ से कुछ भी,

केवल चाहता है संघनित करना,

मेरी ख्वाहिशों के बादल को,

और भरना चाहता है,

मेरा दामन खुशियों से,

पर तुम्हें यह भी मंजूर नहीं।


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