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अरे ओ मजदूर

अरे ओ मजदूर

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अरे मजदूर, अरे मजदूर

तुम्हीं से है दुनिया का नूर

फ़िर क्यों तुम इतने मजबूर।

अपने हाथों के गट्ठों से

रचते तुम हो सबका बसेरा

पर हाय तुम्हें सोने को तो बस

मिला एक है खुला आसमां

अरे मजदूर, अरे मजदूर।

तुम हो क्यों इतने मजबू्र।

बारिश,धूप कड़ी सर्दी में

तन पर वही पुरानी कथरी

बुन बुन कर दूजों के कपड़े

बुझती है नयनों की ज्योति

अरे मजदूर, अरे मजदूर।

तुम हो क्यों इतने मजबू्र।

अनाज भरे बोरे ढो ढो कर

भरते जाने कितने गोदाम

फ़िर भी दोनो वक्त की रोटी

तुम्हीं को क्यूं ना होती नसीब

अरे मजदूर,अरे मजदूर।

तुम हो क्यों इतने मजबू्र।


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