अपनी पहचान की तलाश
अपनी पहचान की तलाश
इस दुनिया वाले मुझे शांत कहते हैं,
कैसे बताऊं अपने आप में उलझी हूँ,
लाखों सवालों के उत्तर की खोज में,
जीवन की राहों पर निकली हूँ।
नींद नहीं आती, चैन भी नहीं,
हर सवाल का जवाब कहाँ है छुपा?
संगीत में कुछ पल राहत पाती हूँ,
पर फिर वही बेचैनी मुझे घेर लेती है ,
नए लोगों से बातें करके सोचा,
शायद हल मिल जाए इस उलझन का,
मगर उन्होंने और सवाल खड़े कर दिए,
मन और उलझ गया हर धड़कन का।
मैं महिला होकर भी महिला न कहलाई ,
समाज के हर व्यक्ति ने मेरे दायरे बताए,
रंगोली से ज्यादा सरकार बनाना चाहती हूँ,
नौकरी नहीं, अपना व्यवसाय बनाना चाहती हूँ,
अपनी खुद की पहचान बनाना चाहती हूँ।
रसोई का काम मुझे नहीं आता,
इसमें क्या बड़ी बात है, ठीक है,
पर इसे आम बात क्यों नहीं मानता?
समाज इसे आम क्यों नहीं मानता?
आजादी से निडर होकर,
बिना किसी रुकावट के दुनिया देखना चाहती हूँ,
धरती, आसमान और ब्रह्मांड की चमक,
महसूस करना चाहती हूँ।
लड़ाई समाज से नहीं,
अपने ही घर में हार रही हूँ,
भीड़ में जाने का डर नहीं,
डर है उनकी सोच से।
कहीं उनमें मिलकर,
मैं भी न बन जाऊं उन्हीं जैसी।
खोई हूँ अपनी ही दुनिया में,
खुद की पहचान ढूँढ़ती हूँ।
क्या सच है, क्या झूठ,
इसी उलझन में डूबती हूँ।
