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Satyendra Gupta

Abstract

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Satyendra Gupta

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अपनी बात

अपनी बात

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क्या बात कहूं, या जज्बात लिखूँ

क्या आश कहूं, या विश्वास लिखूँ

क्या बचपन कहूं, या जवानी लिखूँ

क्या समझ कहूं या समझदारी लिखूँ

लगता है जीवन की हर पहेली लिखूँ।


बचपन बीता आई जवानी

सभी उम्र की थी अपनी कहानी

दिन गवाया रात गंवाई

उम्र भी ना ठहर पाई

हर उम्र में थी अलग जिम्मेवारी

लगता है हर एक जिम्मेवारी लिखूँ।


जिम्मेवारी तो उस दिन था समझा

जिस दिन पापा ने मेरी उंगली पकड़ना छोड़ दिया

मेरे पैरो को चलने के लिए अकेला छोड़ दिया

मेरे हर गलतियों को सबक से मोड़ दिया


मेरी मां ने कपड़े पहनाना छोड़ दिया

जो सुकून था मां के हाथों से खाना खिलाना

मां ने खाना खिलाना छोड़ दिया

लगता है उस हर दिन को लिखूँ।


संघर्ष तो उस दिन था समझा

जिस दिन से पापा से छोड़ दिया पैसे मांगना

अपनी खर्चों को खुद से ही पूरा करना

पैसा का महत्व क्या होता है ?


समझा , जब पड़ा खुद से कमाना

कमाई को सोच समझ कर खर्च करना

लगता है हर संघर्ष को लिखूँ।


चिंता तो उस दिन था समझा

जिस दिन एक से दो हो गए थे

विवाह कर पत्नी को लाए थे

आय वही थे बस खर्च बढ़ गए थे


अपनी शौक को मारकर उसके शोक पूरे कर रहे थे

उदास होते हुए भी मुस्कुराने की नाटक कर रहे थे

लगता है उस हर चिंता को लिखूँ।


विवशता तो उस दिन था समझा

जो कहानी दुहराए जा रहे थे

मेरी मांग को पूरा करने में मेरे पिता को था कष्ट

फिर भी वो पूरा करते थे


आज मुझे वो विवशता आती है नजर

जब हम भी कष्ट में रहकर 

अपने बच्चों की हर मांग को पूरा करते जा रहे थे

लगता है हर विवशता को लिखूँ

लगता है हर विवशता को लिखूँ।


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