अपनेपन की खोज
अपनेपन की खोज
अरे बाबा क्या है ये झम्बेला,
वो देखो दूर मैदान में लगा है रिश्तों का मेला
हर कोई देख रहा है, खड़ा है अकेला
कही कोई अपना मिल जाये यही सोच
मेले में लगा रहा है फेरा।
दिखावा हर कोई कर रहा है,
मुखोटा लगा भावनाओं की माला बेच रहा है,
जिसका, जिससे जैसा-जैसा मतलब
वैसा रंग ओड़ साथ-साथ चल दे रहा है
ये है रिश्तों का मेला।
भाईसाब पैसों के बल पर जुड़ रहे है रिश्ते
जिसके पास जितना पैसा
उतने ही गहरे है उसके रिश्ते,
भाई- भाई लड़ रहे, सास बहू आपस मै तंग
बहनों का आपस मै मिलना कम
दादा-दादी, नाना-नानी, पोता- पोती
इन सब के बीच कहानियों का
सिलसिला हुआ खत्म।
सब कोई अपने आप में है मगन
अपनी सोच अपना परचम
मान-सम्मान हो गया गुम
बड़ो की जगह न बची घर में अब
उनकी जगह स्मार्ट फोन आ गये
यूट्यूब के अंदर कहानी सुनने के मजे ही ला दिये।
ज्यादतर घरों की यही रामलीला है
साधू के भेष में छुपे रावन की अपनी लीला है
समझता जानता हर एक पात्र्र है
पर अपनी -अपनी ईगो के तले दबा हर इन्सान है।
रिश्तों के बीच प्यार भी मैने देखा है
झूमता गाता संसार भी मैनें देखा है
अपनेपन का एहसास भी मैनें देखा है
हसता गाता परिवार भी मैनें देखा है।
अन्तर सिर्फ सोच का होता है जनाब
बुरी से बुरी घड़ी मैं, मुस्कुराते हुए
साथ निभाने वाले रिश्तों का
परिवार भी मैंने देखा है।
