अपने मन की....!
अपने मन की....!
याद है तुम्हें...!
तुम अक्सर कहती थी
तुम्हें उड़ना है
ऊंचे नीले खुले
आसमान में बादलों के उस पार
जहां जाने की तुम्हारी जिद्द थी..........!
तुम बहना चाहती थी
कल कल बहती नदियों के संग
दूर तक अपने मूल से
सब कुछ छोड़ छाड़ कर अकेले तन्हा........!
तुम थाह लेना चाहती थी
गहरे समुद्र के
अनंत गहराइयों की
बड़े करीब से........!
तुम्हारी ख्वाहिशों में
प्रकृति के कण कण में
रच बसना था
मिटकर उसका होना था.........!
तुम मंत्र मुग्ध हो जाती
कहीं सुध खो देती
जब कोहरे में लिपटे
ऊंचे बर्फीले
पहाड़ों को देखती
बेसबब उन्हें तकती रहती......!
तुम घुलने लगती
छुईमुई सी खुद में सिमटने लगती
औंस की बूंदों संग
अक्सर.....!
तुम मिलना चाहती थी
उस मिट्टी में
जो कुम्हार के घड़े को नया रूप देती
और अपनी सौंधी खुशबु से
सबका मन मोह लेती है.....!
तुम्हें बहुत भाती थी
रंग बिरंगी रंगीन
नन्हे पंखों वाली तितलियां
जिनके संग तुम
अक्सर मंडराया करती
बाग बगीचों में यहां वहां......!
तुम अक्सर खामोश हो जाती
जब गौ धुली की बेला में
सूरज धीरे धीरे
पहाड़ों में अस्त होकर
अपनी लालिमा चारों ओर
बिखेर रहा होता...!
तुम्हारा मन कभी उद्वेलित होता
कदाचित बाहर से शांत दिखता
पर तुम्हारे अंदर के
उथल पुथल को
मैंने बहुत करीब से महसूस किया.....!
तुम लौट जाना चाहती थी
फिर से अपने
निश्चल बचपन में
जहां न कोई पीड़ा थी
ना कोई भविष्य की चिंता.....!
और तुमने सब छोड़कर
अलविदा कहने का मन बनाया
खुद से इस जहां से
दूर जाने का मन बनाया.....!
और पा ली अपनी
तमाम ख्वाहिशों
तमाम पीड़ाओं से मुक्ति......!!!
तुमने वही किया
जो तुम अक्सर करती थी
सिर्फ "अपने मन "की....!!!!