अपना कोई
अपना कोई
आखिर मुहब्बत है क्या ?
और इसकी ज़रुरत भी क्या ?
अकेले पैदा हुए,
अकेले ताउम्र जिये,
और मरेंगे भी अकेले ही,
फिर किसकी है जूस्तजू,
क्यों एक आरज़ू,
कि हमनवा हो कोई ?
मेरा अपना हो कोई !
एक भुलावा है शायद,
दिखाते है खुद को ख्वाब कोई,
या कोशिश है हमारी,
तसव्वुर से हकीक़त तामीर करने की,
एक भरोसा है शायद,
समझाते हैं दिल को अपने,
कि हम हैं तन्हा नहीं,
है मेरा अपना भी कोई,
हर्फ़ हर्फ़ जुड़ के बना इक नाम,
सिमटी चंद अल्फाज़ में वो पहचान,
कभी पढ़ लिख लिए ज़ज्बात,
कभी कह सुन लिए कुछ ख्याल,
उकरते हैं बन जुदा जुदा अल्फाज़,
लेकिन एक सुर में एक ही ख्याल,
मेरा भी अपना, आखिर है कोई,
ना जिस्म से, ना लम्स से,
एहसास होता है फ़क्त नफ़स से,
जीस्त का रक्स, इश्क का अक्स,
छाया रहता दिलो-दिमाग पे,
नाचती गाती सी रूह तड़पे,
कि आकर ऐतबार दिलाये कोई,
इक मर्तबा चुपके से कह जाये कोई,
है तेरा अपना भी कोई !
