अनसुलझे सवाल
अनसुलझे सवाल
ये कैसा आज का दौर है
होठों पर पसरी ख़ामोशी,
दिलो - दिमाग़ में मचा सोर है।
अपनी हैसियत से अधिक हैं दिखावे,
भटके राहों का टुटकर बिखरा छोर है।
सोइ आत्माओं के होते रंगीन कपड़े,
घायल अरमानों से बुना एक-एक डोर है।
कुछ कर गुजरने का जोश कितनों में
कामयाबी की तड़प बेहद कमजोर है।
कुछ कमा लूँ, कुछ छुपा लूँ जैसे भी हो,
स्वार्थता का गुलाम ये मन कितना चोर है।
अच्छाई सिखाने वाले चुभते हैं अक्सर,
नैतिकता सीखकर भी लगता क्यों डर है।
अजनबी से सपने सुकून छीन लेते हैं,
खो चुके उजालों का डूब गया भोर है।
कतराते हैं हम अपनों के सवालों से,
गहराई तक खुद डूबा हुआ गौतखोर है।
हर तरफ कितने अनसुलझे मकाम हैं,
बहकावों में मन इस ओर कभी उस ओर है।
ये कैसा आज का दौर है... ये कैसा....