अनिंद्रा से जब जाग उठी!
अनिंद्रा से जब जाग उठी!
जब नींद हो जाती है नीलाम
मच जाता है अनिंद्रा का कोहराम
मस्तिष्क में चीखता चिल्लाता
काले बवंडरों का डेरा
मखमली बिस्तर में भी धीमे धीमे
एहसास चुभते कांटों का
धुआं धुआं सा, जला - जला सा
क्यों लगता है यह सारा जहां?
भीतर सैलाब, विचिलित मन
होश गुम, बेसुध तन
सहमी सुलगी सी मन की तड़प
अपने ही खयालों से खुद की झड़प
गर्म लावे सी तपन अंदर
परतें हर्षोल्लास की चेहरे पर
बाजार इस प्रचण्ड जीवन का
क्यों आपा धापी से है भरा हुआ?
कभी ईर्ष्या, कभी लालसा
कभी बेचैनी, कभी ज्वाला
कभी अज्ञान, कभी घृणा
कभी खामोशी, तो कभी तृष्णा
अतर्द्वंद की प्रचण्ड पुकार
कौन सुने अंदर की हाहाकार
जीवनरूपी समुद्र का
कोई बताए है कहां किनारा?
ब्रह्माण्ड को भी ललकारते
अपनी ही चाल से चलते हुए
सृष्टि के नियम नकारते
मस्तिष्कों के हैं झुंड भरे
न जाने किस जतन में फंसे
खुद ही खुद के प्रतिद्वंदी बने
सच्चाई की है धूमिल परतें
ज्ञान बदल रहा क्यों अपनी परिभाषा?
मन कुछ घबराया सा
शीशे के सामने खड़ा हुआ
भीतर कुछ लगा खोजने
कोई अदृश्य शक्ति लगी बोलने
क्या सोच रहे हो,
क्या खोज रहे हो
क्यों ऐसे विचलित खड़े हो
और मन भी क्यों है डरा - डरा?
अपने अस्तित्व से मिल जरा
वार्तालाप का ढूंढ विकल्प नया
सच्चाई का कर खुल कर सामना
धूल मिट्टी आंखों से हटा जरा
छोड़ इधर उधर भटकना
खुद पर रख पूरा भरोसा
खोज शान्ति का रास्ता
तेरी नैया का खिवैया तेरे भीतर ही होगा!
संतुलित रख विचारों को
चरित्र की भी डोर संभालो
घटिया घटनाओं से दुखी न हो
बुद्धि की धार को तेज़ करो
अपनी इंद्रियों पर संयम रखो
दूर भगाओ अविश्वास को
फिर उठा साहस का घड़ा
विफलताओं से तू मत घबरा !
मैं भौचक्की सी रह गई
सिर खुजलाते सोचने लगी
खुद को अब तक क्यों न पहचानी
स्वर्णिनयों से क्यों टूट गई
क्यों दोष बाहर मैं ढूंढती रही
मेरे अंदर ही है सफलता की कुंजी
अपने अस्तित्व को आज समझ पाई
मेरा मन ही है मेरी प्रेरणा!
संकल्प आज मैंने लिया
जीवन को संवारने का
दायित्व नहीं है औरों का
दायित्व तो है सिर्फ मेरा
अनिंद्रा से गर है दामन छुड़ाना
ईर्ष्या से है दूरी बनाना
चाल और रुख को क्रम में रखकर
मन मस्तिष्क को है अपने वश में करना ! ....