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Amit Kumar

Abstract

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Amit Kumar

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अंधकूप

अंधकूप

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बात चुभती है

लेकिन क्या करें 

हम आदतन मज़बूर है

वो शिकायत्न मशहूर है


हमने कभी नहीं मांगी

अपनी ख़ैर या रब से

खुशामद भी नहीं आई 

अब तलक खुदा क़सम हमसे

वो जो कहते गये

हम वो करते गये


वो खेलते रहे खेल

अपनी ऊंची सियासत का

हम मुहब्बत और इबादत को ही

बस अपना धर्म समझते रहे

उनकी आपसदारी ने छीन लिया


वो सब कुछ जिससे हमें

अपनाहत थी बहुत

अब जो रह गया है

ढह गया ज़र्ज़र अस्थि-पिंजर मात्र है


जो सांस के धागे से जुड़ा है

आस के धागे के सहारे

कोई इतना तब बेबस नहीं हुआ होगा


जब आया होगा इस जहां में

जितना यहां अपनाहत में

समझदारी में ज़ज़्बात की

दोहरी मानसिकता में

बर्बर पशु बनकर अपने ही दाँतों से


नाखूनों से नौंच डालने को

आतुर है खुद को

यह समाज के ठेकेदार समाज को

वादों इरादों की पोटली देकर

अपनी स्वार्थी ज़बान के

मीठे नश्तर से भीतर तक भेद चुके हैं


अब समाज मे जो सजग है

वो निशाने पर है उनके

और जो सो रहे है वो मौत की तरफ़ नहीं

बल्कि मौत से भी घातक अंधकूप में

लीन होते जा रहे हैं।


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