अनछुए पल
अनछुए पल
नन्हीं सी इक 'बिटिया' आई।
माँ-पापा ने खुशी मनाई।।
जहां बिठा दो बैठी रहती।
घंटों तक भी कुछ न कहती।।
साल जो गुज़रा भाई आया।
'बिटिया' के भी मन को भाया।।
यहाँ-वहाँ पर दौड़ लगाता।
दिन भर माँ को बड़ा छकाता।।
'बिटिया' अब भी बैठी रहती।
भाई के संग हंसती रहती।।
इक दिन माँ को हुआ अंदेशा।
जब उसने यह अंतर देखा।।
बेटा चलता ठुमक-ठुमक।
'बिटिया' क्यूँ बैठी है अब तक?
माँ के मन में प्रश्न था आया।
क्यूँ नहीं इसने पाँव उठाया!!
लेकर यहाँ-वहाँ सब भागे।
लेकिन उलझे भाग्य के धागे।।
डॉक्टर ने बतलाया उनसे।
'बिटिया' है दिव्यांग जनम से।।
सुन कर सबके होश उड़ गये।
माँ-पापा भी सोच में पड़ गए।।
लेकिन फिर हिम्मत दिखलाई।
'बिटिया' को शिक्षा दिलवाई।।
माँ-पापा ने मुंह नहीं मोड़ा।
भाई-बहन ने साथ न छोड़ा।।
हिम्मत कभी भी जाने न दी।
कोई कमी कभी आने न दी।।
पंख लगा कर समय उड़ गया।
'बिटिया'का नया नाता जुड़ गया।।
साथी मिला बहुत ही प्यारा।
जिसने पग-पग उसे संवारा।।
ईश्वर से वरदान मिल गया।
गोदी में इक फूल खिल गया।।
कोई शिक़वा नहीं है रब से।
बहुत मिला है मुझको सबसे।।
अपने घर में सुखी है 'बिटिया'।
मैं हूँ ज्योति, हाँ वही 'बिटिया'।।