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गुलशन खम्हारी प्रद्युम्न

Romance

4  

गुलशन खम्हारी प्रद्युम्न

Romance

अमावस वाली रात

अमावस वाली रात

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हमारा भी कभी खुशियों का कोई जमाना था,

उनका इठलाते हुए यादों में आना और जाना था ।

हॅंसना,मुस्कुराना बात-बात पर रूठना मनाना था,

जीवन के सारे वादे साथ-साथ निभाना था ।।

फिर क्यों किसी विधवा जैसी हालत हो गई?

जैसे ग्रहण में यह अमावस वाली रात हो गई...(१)


हाथों में हाथ लिए वही दुनिया घूमे थे,

प्रेम की झूले में संग-संग हम तुम झूले थे ।

दो जिस्म में एक जान एक दूजे के लिए बने थे,

वस्त्र वही हम दोनों ही कभी पहने थे ।।

फिर क्यों संलयन की आस में विखंडन सी मुलाकात हो गई?

जैसे ग्रहण में यह अमावस वाली रात हो गई...(२)


तुम्हारी हॅंसी से मैं भी प्रफुल्लित हुआ हूं,

उदयाचल के दिवाकर संग मैं भी उदित हुआ हूं ।

अब कोरे कागज सा वक्त के हाथों संपादित हुआ हूॅं,

कभी सुनहरे अक्षरों से मैं भी प्रकाशित हुआ हूॅं ।

फिर क्यों सूनी सारी जज्बात हो गई?

जैसे ग्रहण में यह अमावस वाली रात हो गई...(३)


पलकों पर बिठाकर मुझे सपनों से सजाया था,

रूठे रिश्तों को हमने हॅंस-हॅंसकर खूब हॅंसाया था ।

विश्वासों की‌ ईंट से ऐसा महल हमने बनाया था,

आंखें नम होने पर रो-रोकर तुमने मुझे मनाया था ।।

कहो फिर क्यों गिरे हुए इंसान सी मेरी औकात हो गई,

जैसे ग्रहण में यह अमावस वाली रात हो गई...(४)


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