अखंड ज्योत-सी जल
अखंड ज्योत-सी जल
अखंड ज्योत-सी जल,
धरा पर अंगद-सा पाँव धर,
आसमान मुट्ठी में धाम,
तुु चल, बस तू चल।
देेर एक क्षण की बिना करे,
तूू चल , बस तू चल।
उसका घमण्ड चूर कर,
अपने अहम् की लगाम पकड़,
अपने स्वाभिमान की स्वमं ही रक्षा कर।
स्वयं ही कृष्ण बन,
अपनी द्रोपदी की लाज धर।
राह देख न किसी की
स्वयं उठ ,स्वयं चल, स्वयं को ग्रीवा लगा,
सिंहनी-सी दहाड़ दे,
घायल शेेेेरनी- सी ज़़गल को डरा दे।
अपने लक्ष्य की ओर
लूूूतिका-सी बढ़ चल,
हज़ार बार गिरे,
हज़ारों बार उठ,
हज़ारों मशालें जला दे,
तू ऐसी आग लगा दे
तूू ऐसी आग लगा दे।
मृृग-सी दौड़,
बस दौड़, बस दौड़,
म॔जिलों को पार कर ले।
जो सहे पीड़ा प्रसव की
दर्द रोके न राह उसकी।
अपने पर विश्वास धर,
असंभव की चादर चीर कर,
बढ़ चल, बढ़ चल, बढ़ चल।
पहाड़ों को काटती,
तू नदी- सी बह चल,
किनारों को काटती,
तूूूफ़ानों का मुख मोड़ती,
बह चल,बह चल,बह चल।
जरूरत पड़़े तो काली बन
अंंतः शत्रु पर भी प्रहार कर,
तू अखंड ज्योत-सी जल।
