अख़बार
अख़बार
एक ख़ुशनुमा सुबह,
पूरब के आसमान पर
सूरज के आग़ाज़ की लाली
एक ख़ुशनुमा सुबह,
हाथ में गर्मा गर्म
चाय की प्याली।
एक ख़ुशनुमा सुबह,
आज का ताज़ा अख़बार।
पास की कुर्सी पर,
ऊन के गोले बनाती घरवाली।
अख़बार का पहला पेज,
दहशतनुमा ,सनसनीख़ेज़।
अनवरत वर्षा से,
एक पहाड़ दरक गया, संपूर्ण गाँव
पत्थर मिट्टी के सैलाब में
ज़िंदा क़ब्रगाह बन गया
ख़ुशनुमा सुबह का जैसे,
ख़ुशनुमा पल दरक गया
काँपते हाथ से अख़बार
पलटता हूँ ,
पहले पेज की दहशत से
उबरने के प्रयास में
कुछ अन्य ख़बरों पर अटकता हूँ।
मासूम बच्ची का शव ,
झाड़ियों में अटका है।
गाँव के किनारे बाला पेड़,
शाख़ पर जवान कन्या का,
अधनंगा जिस्म लटका है।
पहले पन्ने से अंतिम तक ,
दुर्घटना, हत्या और बलात्कार,
साम्प्रदायिक की आग में झुलसे,
मासूमों के बेबस चीत्कार।
काश यह अख़बार न होता
मैं, इस ख़ुशनुमा सुबह में,
मानवता के इस रूप से
इतना शर्मसार न होता।
दोषी क्या अख़बार ?
या ख़बरची पत्रकार ?
या क़ानून की रक्षक सरकार ?
समाधान के लिए,टी॰वी चैनल पर ,
एक प्रश्न-काल की दरकार।
कुछ नेताओं की,
समाज के ठेकेदारों की ,
वार्ता चलेगी।
टी॰वी की टी आर पी बढ़ेगी।
बातें हैं बातों का क्या,
दुनिया जैसी चल रही है
बैसे ही चलेगी।
मैं भी भूल जाऊँगा कल ,
फिर एक ख़ुशनुमा सुबह होगी ,
हाथों में गर्मा गर्म चाय की प्याली होगी।
