बदलते सामाजिक दायरे
बदलते सामाजिक दायरे
जरुरी नहीं
कि तुम जो चाहो वही हो
और कोई भी चाहे
पसंद -नापसंद
सबकी अलग है
समय - असमय
मौके की बात है
फिर क्यों न चले हम
अपने-अपने रास्ते
जहां न हो कभी
भावनाओं का हस्तक्षेप
न ही बाधित हो
रिश्तों के मायने
यही तो हैं
बदलते सामाजिक दायरे।