मन का झरोखा
मन का झरोखा
बंद कमरे के अंदर,
बैठा मैं ।
अंतर में अँधेरे,
घिर आए हैं।
रिश्तों के अँधेरे,
आस्था और विश्वास के अँधेरे,
अनिश्चित धूमिल भविष्य के अँधेरे।
अँधेरों से बाहर निकलने को
जितना छटपटाता,
मकड़ी-जाल में फँसे पतंगें जैसा
और उलझता जाता।
और गहरे अँधेरों में घिरता जाता।
किंतु कमरे के दरवाज़े की दरारों
से आती धूप की धाराएँ।
रोशनी की धाराओं में
तैरते धूल के नन्हे कण,
चमकीले मोतियों से झिलमिलाएँ।
ये नन्हे कण तो,
सम्पूर्ण कमरे में समाएँ हैं।
किंतु अँधेरों में उनका अस्तित्व
छिप जाता है।
ऊर्जा के कण भी
मन के अँधेरों में समाए हैं।
किंतु अंतर के अँधेरों में,
उनका बोध मिट जाता है।
मन के दरवाज़े का,
कोई झरोखा खोलना होगा।
अवरुद्ध प्रकाश की किरणों
को प्रवाह देना होगा।
अँधेरे छँट जाएंगे,
आत्मविश्वास के छिपे कण
स्वयं ऊर्जावान हों जाएंगे।।
