अकेलापन
अकेलापन
तंग आ चुका हूँ , ऐ जिंदगी तेरे शहर में।
रोज रोता हूँ , कहरता हूँ , तेरे कहर में।
जाने कब मुक्त होऊँगा, गमों की रात से,
दिन -दिन भटक गया ,आँसुओ की लहर में।
अक्सर रात में रोते है , अकेलेपन का रोना ।
भूल चुका हूँ , दिन और रात कब का होना।
आँसू की बस धार बहती है ,रोते समीर की
तरह,ताजुब है फिर भी आँखों का खुला होना।
यकीनन जीवित सिर्फ तेरी उम्मीदों ने रखा है।
न जाने कितने जहर को जहन में पी रखा है।
बस रह न जाये कोई गम , मिले बगैर मुझसे
बस सिर्फ इसीलिए खुद को जिंदा रख रखा है।
मौत तो होगी मेरी भी जो जैसी सबकी होती है।
बस मजा नहीं आयेगा , ये मीठी थोड़ी होती है।
कड़वा पी पीकर हम इतना घोल चुके हैं खुद में
चाशनी मिले भी तो लगता है ,ये कड़वी होती है।