अजनबी से लगते अपने यहाँ
अजनबी से लगते अपने यहाँ
बड़ी ही अजीब दास्तान है, इस ज़िन्दगी की,
बेकार हो जाती है कोशिशें, इसे समझने की,
अजनबी हालचाल पूछते हैं यहांँ, आते-जाते,
पर अपनों को ही ख़बर नहीं यहांँ अपनों की।
दिल में छुपा कर नफ़रत, दिखाते झूठा प्यार,
अपने ही अपनों से करते, अजनबी व्यवहार,
ज़ुबानी प्रेम कुछ नहीं, है लेनदेन ही सबकुछ,
फल फूल रहा रिश्तो में दिखावा और व्यापार।
अजनबी की तरह, सामने से ऐसे गुज़र जाते,
जैसे ना हम उन्हें और ना वो ही, हमें हैं जानते,
किन्तु अपना स्वार्थ जब जागे, तब वही लोग,
झूठी मुस्कुराहट दिखा कर, हमें अपना कहते।
स्वार्थवश मिठास घोलकर, आते वो ज़ुबान में,
हम हर बार फंस जाते हैं, उस झूठी मुस्कान में,
क्योंकि कहीं ना कहीं हम खोना नहीं चाहते हैं,
उन रिश्तो को, समेटना चाहते, अपने दामन में।
अवगत हर कोई यहांँ, दुनिया की इस छवि से,
अपने हैं अजनबी यहाँ और अजनबी अपने से,
बेवजह पूछ भी लेते गर हाल-चाल अपनों का,
तो देखा करते हैं हमें वो, शक भरी निगाहों से।
मतलबपरस्ती का यह कैसा रंग, यहाँ है छाया,
अजनबी लगने लगा है अब, खुद का ही साया,
सबसे कटकर सबसे दूर चारदीवारी में हो कैद,
सब अपनी अपनी दुनिया में बैठा धुन रामाया।
कहीं सुनाई नहीं देती अब अपनेपन की आहट,
सस्ती है, दिखावट यहांँ और महंगी मुस्कुराहट,
कीमत वसूल करने लगे हैं, अपने ही अपनों से,
कीमत ना मिले तो अजनबी है यहाँ, हर चाहत।
अपना बनाकर तकलीफ देना दुनिया का दस्तूर,
पर जो निभाते हैं रिश्ते उसका क्या इसमें कसूर,
इससे अच्छा तो अजनबी ही रहें, इस दुनिया में,
न कोई अपना कहेगा, न दिल टूटकर होगा चूर।