STORYMIRROR

Poonam Jha 'Prathma'

Abstract

4  

Poonam Jha 'Prathma'

Abstract

अभिलाषा

अभिलाषा

1 min
249

हर मानव के मन में मैं होती हूँ,

जाने कितने ही रूपों में होती हूँ,

हाँ माध्यम कर्मों का ही लेती हूँ ,

पर कर्मों के फल में मैं बसती हूँ,

आंखों में जा कई रंगों में सजती हूँ,

और सबकी अभिलाषा बनती हूँ,


कोई ऊँची उड़ान भरना चाहता है,

कोई खूब पढ़ाई करना चाहता है,

कोई सत्ता हासिल करना चाहता है,

कोई धन इक्कठा करना चाहता है,

मैं सबको जीने का मकसद देती हूँ,

अभिलाषा बनकर दिल में बसती हूँ,


माता-पिता जिम्मेदारी में रखते हैं,

बच्चे भी अपनी तैयारी में रखते हैं,

भाई-बन्धु होशियारी में रखते हैं,

मित्रगण दोस्ती-यारी में रखते हैं,

सबके मन पर मेरा ही पहरा है,

अभिलाषा से नाता जो गहरा है,


पति-पत्नी के प्रेम में रहती हूँ मैं,

उनके नोक-झोंक में भी रहती हूँ मैं,

बच्चों की परवरिश में रहती हूँ मैं,

शिक्षा के परिणाम में भी रहती हूँ मैं,

जीवन को सुगम बनाए रखती हूँ मैं,

अभिलाषा हूँ बिन भाषा चलती हूँ मैं,


जब भी कोई निराशा से घिर जाता है,

राह नहीं जब कोई उसे नजर आता है,

उस निराशा में आशा बनकर आती हूँ,

हर अनुभव से मैं और निखर जाती हूँ,

खट्टे-मीठे दोनों की सहभागी बनती हूँ,


अभिलाषा हूँ दिन-रात जागी रहती हूँ,

हाँ मैं अभिलाषा हूँ,

मन में ही रचती और विचरती हूँ,

मन की भाषा खूब समझती हूँ।

मैं अभिलाषा हूँ।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract