अब संहार जरूरी है
अब संहार जरूरी है
उठे धूल की जब जब आँधी,
तो जलधार जरूरी है
बहुत हुआ जुर्मों को सहना,
अब संहार जरूरी है
आज एक नारी की इज्ज़त,
लुटती रही भीड़ भर में
खड़े रहे कुछ मौन साध कर,
कुछ दुबके अपने घर में
कुछ के अंदर आग लगी थी,
लेकिन मन में भी डर है
झगड़ों से बच बसा शहर में,
आखिर मेरा भी घर है
जीवनयापन करना है तो,
इक आधार जरूरी है
बहुत हुआ जुर्मों को सहना,
अब संहार जरूरी है
धँसी हुई भौंहों वाली दो,
देख रही सहमी आँखें
रक्तचाप तो बढ़ा हुआ, पर,
फूल रही थी तो साँसे
डर - डरकर ही सही मगर,
उसने आवाज लगायी है
रक्षक भक्षक बने, बचाओ,
घटना यह दुखदायी है
डूब रही निर्बल की कश्ती,
इक पतवार जरूरी है
बहुत हुआ जुर्मों को सहना,
अब संहार जरूरी है
खुले घूमते, टाल ठोकते,
कौन भला टकरायेगा
जिसको प्यारी मौत लगेगी,
वो ही भिड़ने आयेगा
उत्पातों के स्वामी से आख़िर,
कब तक डरना होगा
इक ना इक दिन इनके हत्थे,
भी चढ़कर मरना होगा
आनी है इक रोज मौत तो,
डर से रार जरूरी है
बहुत हुआ जुर्मों को सहना,
अब संहार जरूरी है