अब बस !
अब बस !
एक वचन स्वयं को
देती हूँ आज
अबला चरित्र को चित्रित नहीं करुँगी।
प्रेम से अधिक सहानुभूति का पात्र
ऐसे स्वरुप को विस्तृत नहीं करुँगी।
समझे हैं मैंने
तुम्हारे संसार के नियम,
कोमल को निर्बल
समझते हो तुम।
त्याग को कर्त्तव्य,
निष्ठा को निर्भरता,
विकल्प को विवशता,
जाने कितने भ्रम।
तुम्हारे दंभ की संतुष्टि
को कितनी बलि चढ़ी
हत्या स्वाभिमान की,
स्वीकृत नहीं करूँगी।
प्रेम से अधिक सहानुभूति का पात्र
ऐसे स्वरुप को विस्तृत नहीं करुँगी |
तुम्हारी लालसा के चलते
स्वप्नों का गला घोंटा
दृष्टि में पर तुम्हारी
मेरा अस्तित्व छोटा।
सीमाएँ भी तुम्हारी
परीक्षाएँ भी तुम्हारी
पहले बनाई सीता
फिर उसको कहा खोटा।
तुम्हारी गढ़ी व्याख्या के
योग्य बनती रही
परिभाषा तुम्हारी
और पुरस्कृत नहीं करूँगी।
प्रेम से अधिक सहानुभूति का पात्र
ऐसे स्वरुप को विस्तृत नहीं करुँगी |
पोंछूँगी नयन अश्रु
मुस्कुराहटें ओढ़ूँगी
स्वप्नों का ले के मलहम
हर घाव को भरूँगी।
क्षितिज के पार दृष्टि
कर लूंगी रीढ़ सीधी
मैं भाग्य से सौभाग्य
चुरा कर के ही दम लूंगी।
"चुप रहना तुम ! सब सहना तुम !"
वर्षों कहती रही
मैं बेटियों को ऐसे प्रेरित नहीं करुँगी !
प्रेम से अधिक सहानुभूति का पात्र
ऐसे स्वरुप को विस्तृत नहीं करुँगी |