आत्मसम्मान
आत्मसम्मान
शिशुपाल ने भरी सभा में
श्रीकृष्ण के आत्मसम्मान को जब ठेस पहुंचाई थी
सौ गलतियां माफ़ करने की
सौगंध थी और एक ग़लती ने फिर शीश ने धरा पाई थी
संयम की प्रकाष्ठा जब पार हुई ,
कौरवों की भरी सभा में फिर श्रीकृष्ण ने
विराट रूप धारण कर ,
सब अज्ञानीयों को अपनी महता समझाई थी।
न माना दुर्योधन कुल के नाश को तत्पर
खाली हाथ लौटाया श्रीकृष्ण को , उसकी मति मारी गई थी।
याज्ञसेनी के खुले केश और भीम की सौगंध
धृतराष्ट्र की अंधता में भीष्म की दूरदर्शिता भी हार गई थी।
संधि के हर प्रयास विफल हुए , अंहकार भारी था
आख़िरी कोशिश में कुंती भिक्षा मांगने कर्ण के पास गई थी।
पांच पांडव जीवित रहेंगे , मैं या अर्जुन एक मरेगा
कवच कुंडल गंवा चुका हूं , मेरे भाग्य में मृत्यु ऐसे ही लिखी गई थी।
कर्ण ने भी मित्रता और आत्मसम्मान के लिए
सब सत्य जान कर भी अपनी गर्दन कटाई थी।
आत्मसम्मान से बढ़कर कुछ नहीं सब गौण हो जाता है
जैसे इन्द्र के छल से सती अहिल्या पाषाण हो गई थी।