आत्मज्ञान
आत्मज्ञान
सुन रे प्राणी ! मन लगाकर भेद की बात कहूँ।
गुजरा वक्त फिर न आवेगा प्रभु की शरण गहूँ।।
संगत कर वीतराग पुरुष की माया से दूर रहूँ।
भौतिकवादी जग ने सब छीना कैसे पीड़ा सहूँ।।
तन-मन-धन न्योछावर कर दे सतगुरु चरण रहूँ।
अहंकार की बलि चढ़ाकर कड़वे बोल सहूँ।।
सुमिरन करले समर्थ गुरु का उनकी बात कहूँ।
मार्ग सुलभ तेरा तब होगा नित बैठ सत्संग करुँ।।
अमूल्य है "आत्मज्ञान"की दौलत कैसे प्राप्त करुँ।
"नीरज" के सद्गुरु ही सहायक उनकी शरण पडूँ।।