आस्था और विश्वास....
आस्था और विश्वास....
बहुत मुश्किल मे पड़ जाते लोग,
आस्था और विश्वास से भिड़ते सब।
कोई अपनी आस्था को दिखता है,
और अपने आपको श्रेष्ठ बताता है।
कोई अपनी विश्वास बरकरार रखता है,
अपनी मंजिल खुद ढूंढ लेता है।
दोनों तब ये भूल जाते हैं,
ये दिखावा, ये खुदगर्जी, झूठा है।
आस्था मे विश्वास छुपा होता है,
विश्वास से आस्था टिका रहेता है।
अगर सोच मे कभी विश्वास नहीं रखता,
तो शब्दों को क्या कभी जोड़ पाता?
और अपनी भावना को प्रकट करता,
जो फिर एक खूबसूरत कविता बन जाता!
और विश्वास से भरा वही कविता
कैसे आस्था के साथ सबको सुनाता?
फिर उस कवि को कोई सुनकर,
अपनी चाहत बढ़ता वो बार बार।
वही चाहत उसके विश्वास को बढ़ाता,
फिर सोच पे आस्था बढ़ते जाता।
ये तो जिन्देगी का रीत है,
और जिन्देगानी का भी गीत है।
हम खुदकी जिन्देगी पे विश्वास रखते,
और उसे देनेवाले को विश्वास करते।
कभी कोई इसे आस्था ही कहेते,
और इस आस्था पे विश्वास रखते।
जब आस्था कभी कमजोर होने लगता,
विश्वास ही उसके ताकत को बढ़ाता।
आस्था और विश्वास साथ साथ होते,
एक दूजे को हमेसा सहारा ही देते।
एक अगर टूट जाए किसी कारण,
दूसरा भी हो जाता है तब ख़तम।
आस्था और विश्वास को अलग नसमझो,
बेकार है उसके तर्क, न उलझो।