आश्वस्त (log 14)
आश्वस्त (log 14)
बेहद ख़ुशनुमा थी ज़िंदगी तुम्हारे आने के बाद
मदहोश नजदीकियों का यूँ खुल कर सामने आना
सीमाएँ टूटती रही क़ायदे, पर्दों का सबर न था
छाया भी उभरी लकीरों को चूम कर निकल गई,
मदभरी अँगड़ाइ कुछ ऐसे तक़ाज़ा करने लगी;
जनून था, चाहत परवान चढ़ी मुहोबत के नाम!

