आस बस एक ही है
आस बस एक ही है
आस बस एक ही है,
और बस एक ही मेरी उम्मीद है,
वो खुदा नहीं है,
कोई फरिश्ता नहीं है।
जब ये हाथ मिले हैं करने को,
पैर मिले हैं बढ़ने को,
मिली है सोच सम्हलने को,
और ह्रदय है हिम्मत रखने को।
क्यों मन में प्यास रखूँ मैं ?
क्यों न कर जाऊँ खुद ही ?
क्यों न खुद से लड़ जाऊँ खुद ही ?
क्यों आस किसी से मैंं रखूँ ?
क्यों इंतज़ार किसी का मैं करूँ ?
हार कर , क्या बैठ जाऊँ मैं ?
गिर कर, क्या खुदसे रूठ जाऊँ मैंं ?
थक कर, क्या सहारा ढूँढू ?
अटक कर, क्या किसी
फरिश्ते का ठिकाना ढूँढू ?
आस मैं खुदसे न रखूँ,
तो क्या कोई और बेसहारा ढूँढू ?
जब ये हाथ मिले हैं करने को,
पैर मिले हैं बढ़ने को,
मिली है सोच सम्हालने को,
और ह्रदय है हिम्मत रखने को।
तो क्यों आस किसी की मैं रखूँ ?
क्यों इंतज़ार किसी का मैं करूँ ?
हाँ तुम मुझ पर विश्वास रख सकते हो,
एक सहारे की आस रख सकते हो,
ठुकराऊँगी न कभी,
तुम मुझसे मदद की
आस रख सकते हो।
क्योंकि भटकते-भटकते
जिस मुकाम पर हूँ,
तुम वहाँ न पहुँचे होगे,
क्योंकि,
रास्ता सुनसान मिला था मुझे,
न कोई सहारा,
न निशान मिला था मुझे।
मैं पैगाम छोड़के आई हूँ,
पत्थर एक-एक उठा कर लाई हूँ,
चाहो तो प्रमाण भी दे दूँगी कभी,
मैं कहीं पहुँची तो नहीं,
पर एक बड़ा सफर
तय करके आई हूँ।