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Surekha Navratna

Abstract

4.4  

Surekha Navratna

Abstract

इंसान नहीं बन पाते हैं..

इंसान नहीं बन पाते हैं..

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चंद जायदाद पर अधिकार जमाकर

ये सोचते हो, मैं धनवान हूँ


कुछ दुर्बलों को पराजित करके

ये समझते हो, मैं बलवान हूँ


कुछ मजबूर गरीबों को कंबल बांटकर 

कहते हो, मैं भगवान हूँ


कुछ भूखों को भोजन खिलाकर

कहते हो, मैं दयावान हूँ


ये प्रचार प्रसार के काम तुम्हारे, 

बखूबी लोग समझते हैं


सत्ता और शोहरत के वास्ते "तुम"

क्या-क्या नहीं कर जाते हो? 


सब कुछ कर जाते हो "मगर" क्यूँ

तुम इंसान नहीं बन पाते हो..?.


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