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Surekha Navratna

Abstract

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Surekha Navratna

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तुम क्या गए...

तुम क्या गए...

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तुम क्या गए जानां...दिन गए...बहार के, 

हर मौसम बन गए हैं अब आलम इंतज़ार के... 


देखूँ तो अब हर शय मायूस नज़र आता है, 

मैंने सुकून खोया है इक पल हंस के गुज़ार के... 


इक-इक लम्हा तुम बिन भारी लगता है, 

गुजरते नहीं हैं "जालिम", ये दिन सोगवार के... 


हर आहट पर यही लगता है...के तुम आए, 

जैसे मृगमरिचिका की आस में "हरिन" रेगज़ार के... 


कट रहे हैं दिन इसी माहौल में धीरे -धीरे, 

जाने कब पीछा छोड़ेगी "कमबख़्त" जिंदगी उधार के... 



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