आओ समझे उलटपुलट की रेखा पर
आओ समझे उलटपुलट की रेखा पर
वही भागम भाग रोजमर्रा की स्थिति,
लगी चीख पुकार हटो बचो की बंदगी।
आखिर समाज आदमी जा कहां रहा है,
कहां हारा थका आदमी पार पा रहा है।।
वही उलझन वही उल्फत आदमी के बीच,
बढ़ता लोभ टूटता विश्वास आदमी की खोंट,
न ही अपना न ही पराया और घटता मोल,
जिंदगी में पैसा भागता आदमी गोल मटोल।
आज का आदमी आपाधापी और मचाये शोर,
न जमीं न आसमां न जंगल बौराये चहूं ओर।
हांफता कांपता भीगता चले मंजिल की ओर,
मानव से आदमी बन बैठा और पहचाने कौन।
मंच पर खीजता आदमी सेठ के लिये,
जमीं पर चीखता आदमी पेट के लिये,
बगुला भगत बन बैठा आज आदमी,
रंज में दौड़ता आदमी तंज के लिये।
आओ समझें उलट पुलट की रेखा पर,
संभलता नहीं आदमी फोकट में गिरता चल,
आबो हवा भी लूट बैठा है भागता आदमी,
समझता नहीं है आदमी को समझाता चल।
