आँखें
आँखें


आंखों के इस तालाब में
क्या कुछ छुपा , ढका , घुला
हुआ है
कोई झांकना चाहे
तो आईना बन
भुला देता उसे खुद में ही
इस शीशे की तरह साफ
परत के नींचे
छुपे हुए है
गुस्से मे फेंके नुकीले कंकर
ख्वाइशों की दबी चट्टानें
पश्चाताप के भारी धसते पत्थर
शिकार के डर से
आशा की ऊपर नीचे
तैरती मछलियां
हल्की ठंडी यह आंखें अब
भारी सी हो गयी हैं
इस उम्मीद में की
बच्चों के मस्ती से
अब यह फिर छलक जाए
कोई खुशी से
कुछ कंकर चुन ले जाये
कोई बहते तालाब से
कुछ आंसू पी जाएं
कोई आशा की
इन मछलियों को
एक दाना और डाल जाए!